शहरों में पत्र पत्रिकाओं की कमी नहीं क्योंकि यहाँ न तो पत्रकारों की और न पत्र पत्रिकाएँ पढने वालों की कमी है . सभी नामी गडामी पत्रकार शहरों में ह़ी रहते हैं .उनकी गलती नहीं है क्योंकि उन्हें घटनाओं से जुड़े हुए समाचार चाहिए और घटनाएँ घटित होती है शहरों में . शहर वालों को इससे क्या मतलब कि गजोधर के बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं क्योंकि शहर से आने वाली मास्टरनी नहीं आ रही हैं . बहादुर के जानवरों को खुरपका हो गया है या फिर लखन के मोहल्ले में माता फैल गयी हैं . भला शहरों में इन समाचारों को कौन पढ़ेगा .
समाचार तब बनेगा जब मंत्री का कुत्ता बीमार हो जाये और जानवरों के अस्पताल में दवाई न मिले , पब्लिक स्कूल में पानी न मिले , विधान सभा या फिर लोकसभा में हंगामा हो रहा हो . भीड़ भाड़ वाले चौराहे पर कोई धरना पर बैठ रहा हो . अब बताइए गाँव पंचायत में लाठी चली या समझौता हुआ इससे कोई समाचार बनेगा ?
शहरी समाचार गाँव तक पहुँचते जरूर हैं परन्तु गाँव वालों के लिए ज्यादा प्रासंगिक नहीं होते इसलिए उन्हें पढ ने वाले मिल भी जाये तो उनमे मतलब की बात नहीं मिलती . ऐसा नहीं कि गावों के विषय में समाचार छपते नहीं हैं परन्तु उनके इकठ्ठा करने में बहुत मेह्नत लगती है और उसके लिए कम लोग ही तैयार होते हैं . भरी धुप में , ठिठुरते जाड़े में या फिर बरसते पानी में कितने शहरी पत्रकार गाँव गली में घूमते दिखाई पड़ते हैं ?
कहने का तात्पर्य यह है कि शहरी अखबार बनते हैं शहर वालों के द्वारा, शहरों पर आधारित और शहर वालों के लिए. हमें चाहिए ऐसे अखबार जो देश की 72 प्रतिशत आबादी की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा कर सकें .
समाचार तब बनेगा जब मंत्री का कुत्ता बीमार हो जाये और जानवरों के अस्पताल में दवाई न मिले , पब्लिक स्कूल में पानी न मिले , विधान सभा या फिर लोकसभा में हंगामा हो रहा हो . भीड़ भाड़ वाले चौराहे पर कोई धरना पर बैठ रहा हो . अब बताइए गाँव पंचायत में लाठी चली या समझौता हुआ इससे कोई समाचार बनेगा ?
शहरी समाचार गाँव तक पहुँचते जरूर हैं परन्तु गाँव वालों के लिए ज्यादा प्रासंगिक नहीं होते इसलिए उन्हें पढ ने वाले मिल भी जाये तो उनमे मतलब की बात नहीं मिलती . ऐसा नहीं कि गावों के विषय में समाचार छपते नहीं हैं परन्तु उनके इकठ्ठा करने में बहुत मेह्नत लगती है और उसके लिए कम लोग ही तैयार होते हैं . भरी धुप में , ठिठुरते जाड़े में या फिर बरसते पानी में कितने शहरी पत्रकार गाँव गली में घूमते दिखाई पड़ते हैं ?
कहने का तात्पर्य यह है कि शहरी अखबार बनते हैं शहर वालों के द्वारा, शहरों पर आधारित और शहर वालों के लिए. हमें चाहिए ऐसे अखबार जो देश की 72 प्रतिशत आबादी की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा कर सकें .
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