यादों की गठरी समेटे हुए और अपनी ही धुन में
सड़क के किनारे
अकेला मुसाफ़िर चला जा रहा थागठरी थी उसकी खुली जा रही ,
यादें संभाले संभलती नहीं थीं
कभी ग़म निकल कर चुभन दे रहे थे,
खुशियाँ कभी थीं उसको
खिझातीं
तभी एक साथी पुराना मिला
बोला कब तक ये गठरी सँवारे रहोगे
इसे फ़ेंक दो, आग इसमें लगा दो
रफ़्तार तुम ज़िन्दगी की बढ़ा दो
नई ज़िन्दगी के सफ़र पर निकल लो
फिर नयी एक गठरी सजा लो
वह रुका, थोडा सोचा और
रफ़्तार अपनी बढा ली.
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